महान समाजवादी चिन्तक व कालजयी विचारक राममनोहर लोहिया और दलित चेतना के परचमपुरुष-ज्ञानपुंज बाबा साहब भीमराव रामजी सकपाल (आम्बेडकर) के जीवन-दर्शन और वैचारिकी का सम्यक तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चला कि दोनों में कई साम्य-बिन्दु और सादृश्यतायें हैं। दलितों के सर्वतोन्मुखी उत्थान के परिप्रेक्ष्य में दोनों एक दूसरे के साथ खड़े व चलते हुए प्रतीत होते हैं। कभी-कभी तो लगता है कि बाबा साहब और लोहिया को नियति ने एक-दूसरे का पूरक बना कर ही धरती पर भेजा था। जैसे महासागर के दो तट, एक दूसरे के सहयात्री व समानधर्मी होकर भी एक दूसरे से कभी नहीं मिलते, वैसे ही लोहिया व आम्बेडकर एक ही पथ के दो परंतप पथिक होकर भी कभी एक दूसरे से नहीं मिले, लेकिन दोनों का लक्ष्य एक था - ‘‘दुनिया में शोषण विहीन समाजवादी समाज की स्थापना’’। दोनों ऐसे जाज्यल्यमान नक्षत्र हैं जो भले ही अलग-अलग क्षितिज पर उगे किन्तु दोनों की चमक एक सी रही। यद्यपि दोनों विभूतियों ने अपना कार्यक्षेत्र भारत को बनाया किन्तु दोनों सही अर्थों में वैश्विक मानव थे जो फरिश्तों की तरह भू-लोक पर आए और सदियों से वंचित वर्ग की व्यथा व वंचना को शाश्वत स्वर देकर प्रेरणादृपुंज बन गए जिससे सदियों तक सम्पूर्ण मानवता प्रेरणा की अलौकिक व अद्भुत रोशनी लेती रहेगी। दोनों के सन्दर्भ में भवभूति की सूक्ति ‘‘कोऽपि समान धर्माः’’ और आंग्ल कहावत ''Great man thinks alike'' सटीक बैठती है।
एक बार लोकसभा के अध्यक्ष रहे लोहिया के अनन्य अनुयायी रवि राय ने संवाद के दौरान मुझसे कहा कि बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर ‘‘स्टेट सोशलिज्म’’ (राज्य समाजवाद) की अवधारणा के प्रबल पैरोकार थे। मुझे सहसा यकीन नहीं हुआ, मस्तिष्क में एक स्वाभाविक सवाल अनायास कौंधा यदि बाबा साहब प्रतिबद्ध समाजवादी थे तो स्वतन्त्रोपरान्त लोहिया और उन्हें एक साथ मंच पर आकर देश की राजनीति में नए अध्याय का सूत्रपात करना चाहिए था। नेपाल यात्रा के दौरान मुझे एक दलित विद्वान और राजनयिक ने बाबा साहब पर मधु लिमए द्वारा लिखित पुस्तक का नेपाली संस्करण भेंट स्वरूप दी। इस पुस्तक का नेपाली में अनुवाद पद्म बहादुर थापा और प्रकाशन प्रख्यात समाजवादी विचारक, सामाजिक कार्यकर्ता व लोहिया के शिष्य विजय प्रताप के मार्गदर्शन में सैडेड (पर्यावरणीय लोकतंत्र पर दक्षिण एशियाई संवाद) ने किया है। बाबा साहब पर लोहिया के सबसे ज्ञानी शिष्य लिमए की पुस्तक हाथों में लेते ही फिर रवि राय जी की वाणी पुनः मस्तिष्क पटल पर झिलमिला उठी। मन में बाबा साहब को पढ़ने की अदम्य अभिलाषा पुनः जागी। उत्तर प्रदेश विधानसभा पुस्तकालय में बाबा साहब पर एक और पुस्तक हाथ लगी जो समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता व महासचिव बाबू मोहन सिंह द्वारा लिखी हुई थी। अब तक मानस में एक अवधारणा बन चुकी थी कि बाबा साहब का लोहिया व समाजवाद से दूरस्थ ही सही, कहीं-न-कहीं, कुछ न कुछ नाता जरूर है।
राममनोहर लोहिया को आद्योपांत पढ़ चुका हूँ, उनके साथ के कई विभूतियों के सानिध्य का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त है लेकिन दुर्भाग्यवश बाबा साहब को न कभी गहराई में पढ़ने का अवसर मिला, न ही उनके किसी सहयोगी से संवाद व विचार-विनिमय का योग बन सका। इसी बीच लखनऊ विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग ने सिम्पोजियम में ‘दलित अभिकथन’ पर उद्बोधन हेतु बुलाया। पाँच-छः दिन का समय मेरे पास था, बाबा साहब पर और बाबा साहब द्वारा लिखी हुई 61 पुस्तकें एकत्र की, उन्हें पढ़ना प्रारम्भ किया तो दिन व रात का अंतर तक भूल गए। होली कब बीत गई पता ही नहीं चला। मेरा अंतस् बाबा साहब के रंग में ऐसा रंगा कि वाह्य रंगों की होली अर्थहीन व नत्वर्थक लगने लगी। संवत् 2073 तदानुसार, सन् 2016 की होली मेरे जीवन की पहली होली रही जिसमें मैं अध्ययन-कक्ष से बाहर नहीं निकला। बाबा साहब को पढ़ते समय मुझे लगा कि मैं लोहिया जी की ही अवधारणाओं, उपागमों व परिकल्पनाओं का पुर्नवाचन अथवा पुनरावलोकन व पुनराध्ययन कर रहा हूँ।
बाबा साहब व लोहिया एक ही काल-खण्ड का होने के बावजूद बिना एक दूसरे से मिले, एक दूसरे के प्रशंसक रहे हैं। एक भी ऐसा उद्धरण व उदाहरण नहीं मिलता जिसमें लोहिया जी ने डा0 भीमराव आम्बेडकर की और बाबा साहब ने डा0 लोहिया की आलोचना की हो। लेकिन ऐसे कई दृष्टान्त उपलब्ध हैं। जिसमें दोनों ने एक दूसरे की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। यह घटना नवम्बर 1951 की है। अनुसूचित जाति फेडरेशन की कार्यकारिणी की बैठक के दौरान बाबा साहब ने कई बार सांसद रहे चुके प्रखर नेता व संगठन बुद्धप्रिय मौर्य से पूछा कि डा0 लोहिया को जानते हो। मौर्य जी चुप रहे, वे लोहिया को पहचानते-जानते तो थे ही लेकिन उन्होंने जानने से अभिप्राय लगाया कि ठीक से अवगत होना। बुद्धप्रिय की खामोशी पर बाबा साहब भड़के और बोले ‘‘तुम खाक पाॅलिटिक्स करोगे, जब तुम राममनोहर लोहिया को नहीं जानते। हिन्दुओं के एक ही नेता हैं जो ईमानदारी से जात-पात तोड़कर जातिहीन समाज की स्थापना करना चाहते हैं। बकौल बुद्धप्रिय मौर्य आमतौर पर डा0 आम्बेडकर किसी की तारीफ करने के मामले में काफी कंजूस थे। आम्बेडकर जी की प्रशंसा के उपरान्त बुद्धप्रिय डा0 लोहिया से मिलने ओखला निरीक्षण भवन पहुँचे। डा0 लोहिया ने कई उद्बोधनों व लेखों में बाबा साहब की मुक्त हृदय से प्रशंसा की है। अगस्त 1956 में अपने एक भाषण में लोहिया जी ने बाबा साहब की तारीफ करते हुए उन्हें महान नेताओं की श्रेणी में रखा था। जुलाई 01, 1957 को मधु लिमए को संबोधित एक पत्र में बाबा साहब के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए डा0 लोहिया ने लिखा है “मेरे लिए डा0 आम्बेडकर हिन्दुस्तान की राजनीति के महान आदमी थे और गांधी को छोड़कर बड़े से बड़े सवर्ण हिन्दुओं के बराबर। डा0 आम्बेडकर विद्वान थे। उनमें स्थिरता, साहस और स्वतंत्रता थी। वे बाहरी दुनिया को हिन्दुस्तान की मजबूती के प्रतीक के रूप में दिखाए जा सकते थे। उन्होंने इसी पत्र के अंतिम भाग में अपनी सदेच्छा व्यक्त की है कि श्रद्धा और सीख के लिए डा0 आम्बेडकर को प्रतीक माना जाय। बाबा साहब की कटुता को छोड़कर उनकी स्वतंत्रता को लिया जाय और ऐसे आम्बेडकर को देखा जाय जो केवल हरिजनों के नहीं पूरे देश के नेता हों। आम्बेडकर पर कई पुस्तकें लिखने वाले विद्वान प्रो0 राजेन्द्रमोहन अग्रवाल ने लिखा है कि वे अति समाजवादी थे, किन्तु साम्यवादी नहीं थे। कुछ ऐसा ही अभिमत लोहिया के ‘रामायण मेले’ से जुड़े प्रख्यात साहित्यकार, विचारक और शिक्षाविद् डा0 राजेन्द्र मोहन भटनागर की है। जिन्होंने बाबा साहब आम्बेडकर-चिंतन व विचार, डा0 आम्बेडकर जीवन-मर्म, डा0 लोहिया, क्रांतिकारी लोहिया समेत अनेक पुस्तकें लिखी हैं। स्वयं बाबा साहब ने बौद्ध धर्म को अपनाने के पूर्व बौद्ध धर्म के बेहतर होने की कसौटियों में प्रमुख कसौटी ‘‘समाजवाद’’ व ‘‘लोकतंत्र’’ को बतलाया था। इससे स्पष्ट है कि बाबा साहब के मन में समाजवाद के प्रति वही अनुराग था जो लोकतंत्र व बौद्ध धम्म के प्रति था।
लोहिया व आम्बेडकर की संवाद शैली और लेखन विधा भी एक जैसी है। दोनों अपने लेखों व वक्तव्यों के दौरान कब सूत्र-वाक्य बोल देते थे, पता नहीं चलता थ। दोनों चलते-फिरते विश्वज्ञान कोष (Encyclopedia) थे।
बाबा साहब और लोहिया दोनों सही मायने में विश्व-नागरिक थे, दोनों को देश की परिधि में संकुचित करना उनके विराट व्यक्तित्व का अवमूल्यन होगा। दोनों की अमरीका और इंग्लैण्ड के समाजवादियों में गहरी पकड़ थी, दोनों इंग्लैण्ड के समाजवादी नेताओं (लेबर पार्टी के सोशल डेमोक्रेट्स) के सम्पर्क रहे। नवम्बर 4, 1927 को दामोदर हाल में बाबा साहब की बहिष्कृत हितकारिणी सभा के तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम में लेबर पार्टी के सांसद (सीनेटर) हार्डी जोन्स ने भाग लिया था। और मजदूरों तथा समाजवाद पर मन को झंकृत कर देने वाला वक्तव्य देते हुए आम्बेडकर को समान सोच (सपामउपदकमक) बताया था। सर्वविदित है कि इंग्लैण्ड लेबर पार्टी समाजवाद में गहरी आस्था रखती है। बयालीस की क्रांति के दौरान जब लोहिया गिरफ्तार हुए तो उन्हें लाहौर के कुख्यात किले में कैदी बनाकर तत्कालीन ब्रिटानिया हुकूमत ने रखा। लोहिया को असहनीय यातनायें दी गई। उनके नाखून निकाल लिए गए, पूरे शरीर को हथकड़ियों व जंजीरों से जकड़ कर बलात् जगाया जाता। उस समय भारत का शीर्ष नेतृत्व विभिन्न जेलों में निरुद्ध था। लोहिया ने किसी प्रकार एक पत्र तत्कालीन लेबर पार्टी के अध्यक्ष, ‘‘वेयर सोशलिज्म स्टैण्ड टुडे’’ व सोशलिस्ट लैंडमार्क (socialist landmark) के लेखक प्रो0 हेराल्ड लास्की को लिख कर पहुँचाया।
लास्की व लेबर सीनेटरों के दबाव के कारण लोहिया जेपी व समाजवादी कैदियों को थोड़ी राहत मिली। हिन्दुस्तान के उपसचिव आर्थर हेण्डरसन को जवाब देना पड़ा। वायसराय लाहौर से आगरा किले में लोहिया व उनके साथी जयप्रकाश को स्थानान्तरित करने के लिए बाध्य हुए। जनवरी 1945 में वरिष्ठ समाजवादी नेता व सीनेटर रेजिनाल्ड सोरेनसेन भारत आकर लोहिया से मिले। अपने इंग्लैण्ड प्रवास के दौरान लोहिया व आम्बेडकर लेबर पार्टी से सम्बद्ध लोगों के ही आतिथ्य-सत्कार में रहे। आम्बेडकर ने अपनी राजनीतिक पार्टी का नाम ब्रिटेन के लेबर पार्टी के तर्ज पर इंडिपेण्डेंट लेबर पार्टी रखा। आम्बेडकर की पार्टी ने 1937 में महाराष्ट्र धारा सभा के चुनाव में उल्लेखनीय सफलता भी दर्ज की। बाबा साहब आम्बेडकर की लेबर पार्टी की घोषणा-पत्र से उनके समाजवादी विचारों की प्रतिध्वनि सुनाई देती है। वे लिंकन, लास्की, बर्टेड रसैल से प्रभावित दिखे, ये तीनों लोहिया के भी प्रेरणा-पुरुष हैं। 1950 में श्रमिक दल से चुनाव लड़ने और हारने वाले बड रसैल के विचारों को आम्बेडकर ने अक्सर सूक्ति-वाक्यों की तरह उद्धृत किया है और रसेल की पुस्तक ‘‘Distraction of Society’’ की समीक्षा लिखते हुए अपने को रसेल के समाजवाद से कई बुनियादी सवालों पर सहमत बतलाया। लोहिया के भी प्रिय राजनीतिक विचारकों की सूची में रसेल का नाम अग्रगण्य है।
दोनों अर्थशास्त्र के शोधार्थी थे और दोनों के आर्थिक चिन्तन में आर्थिक विषमता पर करारा प्रहार मिलता है। सन् 1915 में बाबा साहब को एम0ए0 की डिग्री कोलम्बिया विश्वविद्यालय (अमरीका) में प्राचीन भारत की वाणिज्य व्यवस्था (Ancient Indian Commerce) पर मिली तो पीएचडी में उनका विषय ‘‘National divident of India & A Historical and analytical study’’ (भारतीय राष्ट्रीय लाभांश-एक ऐतिहासिक व विश्लेषणात्मक अध्ययन) था। इसके अतिरिक्त 1921 में लंदन में उन्हें ब्रिटिश भारत में साम्राज्य पूँजी का प्रादेशिक विकेन्द्रीयकरण (The provincial decentralçation of Imperial Finance in British) शोध-प्रबन्ध पर एमएससी की उपाधि मिली। उनके अक्टूबर 1922 में लिखे गए शोध-प्रबन्ध ‘‘द प्राब्लम आफ रुपी’’ को लंदन के प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों से सराहना मिली। गौर तलब है। कि उनके द्वारा यूरोप और अमरीका में अर्जित की गई सभी डिग्रियों का विषय-वस्तु अर्थशास्त्र ही रहा।
लोहिया को भी जर्मनी में पीएचडी की डिग्री अर्थशास्त्र में मिली। दोनों का आर्थिक चिन्तन एक दूसरे से मिलता-जुलता है। दोनों आर्थिक विषमता को दूर करने वाली आर्थिक नीतियों के पक्षधर हैं। एक जगह बाबा साहब ने औद्योगिक नीति पर टिप्पणी करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है भारत के औद्योगीकरण के लिए राजकीय समाजवाद (state Socialism) आवश्यक है। निजी अर्थव्यवस्था ऐसा नहीं कर सकती तथा यदि प्रयत्न किया जाय तो आर्थिक विषमता को ही जन्म देगी। यह भारत के लिए खतरे की घण्टी है।" उनकी ऐतिहासिक रिपोर्ट (प्रतिवेदन) ‘‘स्टेट्स एण्ड माइनोरिटीज’’ का आर्थिक अध्याय राज्य समाजवाद लाने का आह्वान करता है। उनका आर्थिक दर्शन लोहिया की भांति किसानों, मजदूरों और वंचित वर्ग की खुली पैरोकारी करते हुए उन्हें संरक्षण देते हुए नजर आता है। आम्बेडकर का समाजवाद लचीला समाजवाद है। उन्होंने संविधान को समाजवाद लाने के वाहन के रूप में स्वीकार किया और ऐसे प्रावधान उपबन्धित किए कि व्यक्तिवाद व पूँजीवाद के नग्न-नर्तन व निरंकुयाता पर अंकुश लगे। राममनोहर लोहिया के विषय में कोई संशय नहीं है कि उन्होंने समाजवाद के लिए पूरा जीवन समर्पित कर दिया। आजादी के पहले और आजादी के बाद भी गणतांत्रिक समाजवाद के मूल्यों को ताकत देने के लिए वे सतत संघर्ष करते रहे। लोहिया प्रथम पंक्ति के एक मात्र ऐसे नेता हैं जो आजादी की लड़ाई के दौरान जितनी बार जेल गए, उससे अधिक सामूहिक प्रतिकार को स्वर देते हुए आजादी के बाद भी कारावास की यातना भोगी। किन्तु समाजवाद की लौ को ज्योर्तिमय करते रहे। वर्ण-भेद अथवा नस्ल भेद के विरुद्ध लोहिया ने अमरीका में सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तारी दी थी और अमरीकी बुद्धिजीवियों को अपने अकाट्य तर्को तथा अद्भुत मेधा के आगे झुकने के लिए बाध्य कर दिया था।
अमरीकी विद्वान व रिपब्लिकन पार्टी के नेता हैरिस वोफोर्ड ने बाकायादा ‘‘लोहिया एण्ड अमरीका मीट’’ पुस्तक में लोहिया के नस्लभेदी सत्याग्रह को चित्रित करते हुए पुस्तक लिखी है। बाबा साहब ने भी अमरीका यात्रा के दौरान वहां के नीग्रो युवाओं व युवतियों से संवाद किया और नस्लभेद को मानवता के लिए नासूर बतलाया, वहाँ उन्हें जॉन राबर्ट ने ष्अश्वेतों के गौरवश् की संज्ञा दी थी। दोनों ने भारतीय मेधा की कीर्ति-पताका को यूरोप व अमरीका में फहराया। जब 1955 के उपरान्त बाबा साहब व लोहिया के मध्य एक मंच पर आने की भूमिका बनने लगी थी, लोहिया व बाबा साहब के मध्य बनी सैद्धान्तिक सहमति इसके पहले मूर्त-रूप ले पाती, बाबा साहब 6 दिसम्बर 1956 को महाप्रयाण कर गए।
बाबा साहब के जाने के बाद लोहिया ने उनके ‘‘जाति तोड़ो अभियान’’ ‘‘अछूतोद्वार’’, ‘‘अस्पृश्यता विरोधी गतिविधियाँ’’, दलितों का मंदिर प्रवेश जैसी कार्ययोजनाओं और सोच को पूरी प्रतिबद्धता और ताकत से आगे बढ़ाया। इसमें दो राय नहीं कि भारतीय जनमानस को गांधी के बाद सबसे अधिक लोहिया व आम्बेडकर ने ही प्रभावित किया है और नए मन के नए समाज की पूर्वपीठिका तैयार की।
सन् 1955 के बाद देश का सियासी वातावरण तेजी से बदलने लगा। पंडित नेहरू के समानान्तर लोहिया व आम्बेडकर दो बड़े नाम थे। दोनों के समर्थक महसूस करने लगे थे कि दोनों को एक साथ एक मंच पर आकर देश को नया और सक्षम विकल्प देना चाहिए। केरल में थानुपिल्लै की सरकार लोहिया गिरा चुके थे, अवाड़ी सम्मेलन (1955) में पंडित जवाहर लाल नेहरू समाजवादी संघात के समाज (Society of socialistic pattern) का प्रस्ताव पारित कर एक वैचारिक विपर्यय अथवा भ्रम फैलाने में सफल हो चुके थे। अशोक मेहता ने कांग्रेस के प्रस्ताव का समर्थन व स्वागत किया जिनके विरुद्ध मधु लिमए ने निर्णायक प्रतिकार की घोषणा कर दी। फलस्वरूप मधु लिमए को बम्बई सोशलिस्ट पार्टी ने निष्कासित कर दिया। लोहिया ने देश भर के समाजवादियों से मधु लिमए का स्वागत और व्याख्यान कराने की अपील की। पुरी में 29 से 31 मई 1955 के दौरान लिमए की अध्यक्षता में समाजवादियों का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ जिसमें लोहिया ने देश में सैद्धान्तिक बहस चलाने का आह्वान किया। इसी दौरान मणिपुर में लोहिया को सभा को सम्बोधित करते हुए गिरफ्तार कर लिया गया। लोहिया की गिरफ्तारी के पश्चात देश में हलचल मचना स्वाभाविक था। ‘‘जेल के फाटक टूटेंगे-डा0 लोहिया छूटेंगे’’ के नारों से पूरा देश गूंज उठा। भारी जन-दबाव के कारण लोहिया छूटे। छूटते ही उन्होंने नया दल बनाने की घोषणा की। लोहिया जानते थे कि ऐसे वातावरण उन्हें बाबा साहब का साथ मिलेगा। क्योंकि दोनों का मकसद एक था। उन्होंने हैदराबाद से 10 दिसम्बर 1955 को डा0 आम्बेडकर को पत्र लिखकर समाजवादी दल के विशेष अधिवेशन को सम्बोधित करने का आग्रह किया। डा0 लोहिया को डा0 आम्बेडकर का 24 सितम्बर 1956 को लिखा गया पत्र मिला कि 30 सितम्बर को दिल्ली में होने वाली अखिल भारतीय परिगणित जाति संघ की बैठक में बाबा साहब लोहिया के प्रस्ताव को रखेंगे और वे चाहते हैं कि पार्टी के प्रमुख लोगों से बातचीत होकर साथ और गठबंधन की दशा को अंतिम रूप शीघ्रातिशीघ्र दे दिया जाय। बाबा साहब ने इसी पत्र में डा0 लोहिया से 2 अक्टूबर 1956 को मिलने की बात कही। लोहिया ने ‘‘मैनकाइण्ड’’ के तीन अंक भेजवाते हुए बाबा साहब को पत्र लिख कर 19 या 20 अक्टूबर को मिलने का आग्रह किया। इस पत्र में उन्होंने बाबा साहब से सार्वजनिक सवालों पर बिना किसी रोक के बोलने व टिप्पणी करने का निवेदन किया। खराब स्वास्थ्य को कुप्रभाव बाबा साहब की सक्रियता पर भी पड़ा। नवम्बर में वे बीमार पड़े और 6 दिसम्बर 1956 को अपने सपनों और लोहिया नीत समाजवादी पार्टी के साथ एका के समस्त सद्प्रयासों को भी अधूरा छोड़कर चले गए।
इस प्रकार 1955 और 1956 के मध्य लोहिया व आम्बेडकर के मध्य हुए पत्र-व्यवहार और वैचारिक विनिमय से स्वतः स्पष्ट है कि दोनों में काफी हद तक वैचारिक समानतायें थीं जिन पर व्यापक विचार-विमर्श, विश्लेषण और लेखन आदि शेष हैं।
आइए, दोनों महापुरुषों के मध्य कुछ उभयनिष्ठ सादृश्यताओं का विहंगावलोकन किया जाय।
बाबा साहब और डा0 लोहिया चाहते तो अपनी मेधा और मेधा द्वारा अर्जित विद्वता का प्रयोग कर सुखमय जीवन जी सकते थे, लेकिन दोनों ने देश-सेवा और समाज सुधार की कठिन राह चुनी और समूचा जीवन सतत संघर्ष में होम कर दिया। लोहिया को पंडित नेहरू द्वारा विदेश मंत्री बनने का प्रस्ताव था, वे 1936 से लेकर 1938 तक कांग्रेस के पराराष्ट्र विभाग के प्रमुख रह भी चुके थे लेकिन उन्होंने मंत्री बनने की बजाय प्रतिपक्ष में रहकर लोकतंत्र को और अधिक सशक्त बनाने का निर्णय लिया, लोहिया की स्पष्ट मान्यता थी कि राजनीति व लोकजीवन में सिद्धान्त से बड़ा कुछ भी नहीं होता, सत्ता और सिद्धान्त में उन्हें जब भी किसी एक को चुनना पड़ा तो उन्होंने सिद्धान्त को चुना। बाबा साहब के सामने भी जब कभी सत्ता या सिद्धान्त में से किसी एक को चुनने का प्रश्न आया, उन्होंने सिद्धान्त का दामन थामा। उन्होंने हिन्दू-बिल के पश्चात देश का विधि मंत्री पद को छोड़ने में पल भर की भी देरी नहीं की। दोनों लोकसभा के चुनाव लड़े, प्रारम्भिक दो चुनाव दोनों हारे। किन्तु जीत के लिए जाति, धन, लोकलुभावन कारकों और अन्यान्य साधनों का प्रयोग नहीं किया। महज चुनावी जीत, सांसद बनने अथवा सरकार बनाने के लिए दोनों ने किसी भी प्रकार की सौदेबाजी तो दूर समझौता तक नहीं किया।
बाबा साहब 1952 के चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी से मात्र चैदह हजार तीन सौ चैहत्तर (14374) मतों से हारे। उन्हें एक लाख तेईस हजार पांच सौ छिहत्तर वोट प्राप्त हुए। बाबा साहब 1954 में एक और उपचुनाव लड़े किन्तु जीत न सके। वे राज्य सभा सदस्य थे ही किन्तु लड़ने की प्रवृत्ति के कारण ही चुनावी मैदान में उतरे। उनके लिए संसद की सदस्यता से ज्यादा महत्वपूर्ण सिद्धान्तों और विचारों का प्रचार-प्रसार व समतामूलक समाज का नवनिर्माण था। कमोबेश लोहिया भी इसी मानसिकता के थे। वे अपना पहला लोकसभा चुनाव चकिया चन्दौली से 1957 में लड़े, किन्तु अपने निर्वाचन क्षेत्र की बजाय अन्य क्षेत्रों में भ्रमण करते रहे, पार्टी के दूसरे प्रत्याशियों का प्रचार करते रहे, इसके विपरीत तत्कालीन सरकार ने पूरा जोर लोहिया को हराने में लगा दिया। लोहिया काफी कम मतों से पराजित हुए। वे चाहते तो राज्य सभा जा सकते थे, सोशलिस्ट पार्टी 8 राज्यों में ऐसी स्थिति में थी कि उन्हें राज्य सभा के लिए निर्वाचित कर भेज देती, लेकिन लोहिया को यह गंवारा न था। 1962 में पुनः लोकसभा का आम चुनाव आया, कोई सामान्य व्यक्ति होता तो पुनः चंदौली से लड़ता, पर लोहिया तो लोहिया थे।वे लोकसभा का चुनाव पंडित जवाहर लाल नेहरू से लड़ने फूलपुर पहुँच गए, जहां से हार तय थी। फूलपुर में कई बूथों पर लोहिया की जीत हुई। लोहिया ने भारत को एहसास करा दिया कि पंडित नेहरू व कांग्रेस भी हार सकती है। इसके बाद 1963 में फर्रुखाबाद उपचुनाव जीतकर लोहिया - संसद पहुंचे।
बाबा साहब की सोच के अनुरूप लोहिया ने संसद को आम जनता के दुःख,दर्द व दलन का दर्पण बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी और सफल रहे। दोनेां के दुःख और दुर्भाग्य भी एक जैसे रहे। बाबा साहब की तरह डा0 लोहिया भी बाल्यावस्था में ही माँ के आंचल से महरूम हो गए। बाबा साहब की माँ भीमाबाई का देहान्त 1896 में हुआ जब मात्र पांच वर्ष के थे, इसी तरह डा0 लोहिया मात्र ढाई वर्ष की अवस्था में मातृहीन हो गए। मनोविश्लेषकों का मानना है कि मातृहीन बच्चों में कठोरता आ जाती है। उनकी मनोसंरचना सामान्य बच्चों की अपेक्षा अधिक जटिल और स्वावलम्बी हो जाती है। बाबा साहब और लोहिया दोनों बाल्यकाल से ही सामान्य बच्चों से अलग, प्रखर और अन्याय के घोर विरोधी थे। बाबा साहब के साथ के आम बच्चे जहाँ छुआछुत के आगे सर झुका लेते थे, वहीं आम्बेडकर छूआछूत के विरुद्ध आवाज उठाते थे, यथासम्भव लड़ते थे। हर मोड़ पर लड़े, सवाल खड़े किए। उपेक्षा व अवहेलना को शान्त होकर नहीं सहा। उन्होंने अपनी निजी पीड़ा को अपनी जाति व जमात की पीड़ा में जोड़ कर देखा। लोहिया ने भी जहाँ विभेद देखा खड़े हुए। वे अंग्रेजों से लड़े, उनके झूठ का कदम-कदम पर पर्दाफाश किया।
दोनों ने उच्च शिक्षा विदेशों में ग्रहण की। दोनों की पारिवारिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि उनके पिता उन्हें अमरीका या यूरोप में पढ़ा सके। आम्बेडकर ने जहाँ सयाजी राव गायकवाड़ को ज्ञान से प्रभावित कर वजीफा हासिल की और अमरीका में पढ़ाई पूरी की। वहीं लोहिया ने बंगाल के मारवाड़ियों से धन अर्जित कर यूरोप गए। दोनों को विदेश में काफी तकलीफें उठानी पड़ी, गुलाम देश और काले वर्ण का होने के कारण भी अतिरिक्त दिक्कतें आईं पर दोनों ने सभी बाधाओं को पार किया और भारत का मान घटने नहीं दिया और शीर्ष डिग्री लेकर ही भारत लौटे।
आम्बेडकर अमरीका से लौटने के बाद महाराज कोल्हापुर की मदद से श्मूकनायकश् का प्रकाशन किया ताकि उपेक्षा का दंश झेल रहे। दलितों की मूक-वाणी को लेखनी के माध्यम से बुलंद किया जाय। परिवार चलाने के लिए आम्बेडकर ने नौकरी भी की। बड़ौदा रियासत में सैन्य सचिव बने, जहां उन्हें दलित जाति का होने का दंश प्रतिदिन मिला। उन्हीं का चपरासी उन्हें फाइल दूर से मेज पर फेंक कर देता था ताकि फाइल देते समय स्पर्श न हो जाए। उनकी सारी विद्वता महार जाति का होने के कारण निष्प्रयोज्य थी। नवम्बर 1918 में वे बंबई के सीडेहाम कालेज आफ कामर्स एंड इकोनॉमिक्स में राजनीति और अर्थशास्त्र के शिक्षक नियुक्त हुए, यहां भी उन्हें जातिगत अपमान से दो चार होना पड़ा। उन्हें उस घड़े से पानी पीने पर लताड़ मिली जिसका प्रयोग अन्य शिक्षक करते थे। तंग आकर मार्च 1920 में उन्होंने प्रोफेसरी छोड़ दी। सितम्बर 1920 को उन्हें लंदन स्कूल आफ इकोनोमिक्स में दाखिला मिला। वे 1923 तक लंदन में रहे जहाँ उन्होंने अर्थशास्त्र में परास्नातक (एमएससी) और कानून की पढ़ाई की। वे बचपन से एक ही सपना देखते थे कि वकील बनकर दलितों को न्याय दिलायेंगे। बाबा साहब ने अन्ततोगत्वा तमाम झंझावतों से जूझते हुए वकालत की डिग्री हासिल कर ली और सामाजिक न्याय (social justice) दिलाने की मुहिम में लग गए ताकि उनके बाद की पीढ़ी वह अन्याय व अपमान जो उन्होंने दलित होने के कारण सहा। ‘‘भारत को आजाद कराना’’ लोहिया के बालमन का मधुर स्वप्न था। इस स्वप्न को मूर्त रूप देने के लिए वे जर्मनी से पीएचडी करके भारत लौटे और आजादी की लड़ाई में कूद पड़े। कुछ समय के लिए उन्होंने भी महामना मदनमोहन मालवीय के बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र पढ़ाया, लेकिन नौकरी में उनका मन नहीं लगा। नियति उनसे कुछ और कराना चाहती थी। आम्बेडकर और लोहिया में तय करना मुश्किल है कि पुस्तकों और पठन पढ़ाई-लिखाई में किसकी अभिरूचि अधिक थी। आम्बेडकर अमरीका से लौटते समय दो बोरा पुस्तकें लेकर आए और लोहिया का भी हाल ऐसा ही था। मजे की बात है कि लोहिया की पुस्तकें चोरी हो गईं, उन्होंने इन पुस्तकों के बक्सों को इतना सहेज कर रखा था कि चोरों को लगा बक्से में कोई अनमोल खजाना है। ऐसी ही दुर्घटना बाबा साहब के साथ भी हुई थी आम्बेडकर ने जिस जहाज से अपनी पुस्तकों को भेजा था, वह जहाज अमरीका से चला किन्तु भारत पहुंचने के पूर्व समुद्र में कहीं डूब गया। हालांकि मुआवजे के तौर पर थामस बुक डिपो ने उन्हें दो हजार रुपए का चेक भेजा था। आजादी के वक्त महाराष्ट्र में दंगा हुआ, पुलिस ने बाबा साहब को घर न जाने की सलाह दी, इस पर उन्होंने कहा कि मेरे घर मेरे परिजनों के अलावा मेरी पुस्तकें हैं, अतः वे जायेंगे ताकि उनका नुकसान न हो। इस संवाद से जाहिर होता है कि बाबा साहब पुस्तकों को परिजनों के बराबर महत्व देते हैं।
बाबा साहब और लोहिया में कई गुण समान रूप से विद्यमान थे। दोनों प्रथम कोटि के लेखक, वक्ता, चिन्तक, संपादक और संगठक थे। बतौर लेखक लोहिया ने आम्बेडकर की भांति समाज की विकृतियों पर खूब लिखा। दोनों के लेखन में ऐतिहासिकता और विश्लेषणात्मक गवेषणा की अनुपम छटा मिलती है, दोनों ने जिस भी सामाजिक समस्या पर लेखन किया, उसके सभी पहलुओं को स्पर्श किया, न केवल समस्या के कारणों का विवेचन किया अपितु उनका सैद्धान्तिक व व्यवहारिक समाधान प्रस्तुत किया चाहे वह जाति की समस्या हो या आर्थिक विषमता हो। दोनों द्वारा लिखे गये पुस्तकों के शीर्षक भी मिलते-जुलते हैं। आम्बेडकर की प्रसिद्ध पुस्तकें हैं - "Customs in India", Annihilation of Caste, Federation Versus Freedom, Mr.k~ Gandhi and emancipation of the untouchables, What Congress and Gandhi do for untouchables, Ranade, Gandhi and Jinna, who were shudras?k~ State and minorities, Pakistan or the partition of India, Gosple of Buddhism, Buddha and his dharma, Thought on lequistic state, what ails the world today, Small holdings in India and the remedies, the problem of the rupee, the evolution of provincial finance in british India, | इन पुस्तकों के शीर्षकों से ही स्पष्ट है कि वे समाज व समसामयिक घटनाओं पर पैनी निगाह रखते थे। उन्होंने जाति, किसान, पाकिस्तान, गांधी, भाषा, भाषाई राज्य, साम्प्रदायिकता, विश्व की समस्याओं, रुपए की समस्या सदृश विषयों को चुना और अपनी राय समग्र रूप में रखा। इसी तरह लोहिया द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर दृष्टिपात किया जाय। Action in Goa, Aspect of Socialist party, Caste System, Fragment of world Mind, Guilty Men of India's partition, Indian in foreign lands, Language, Letter to Socialists, Marx, Gandhi and Socialism, Third Camp in World ffaairs, Wheel of the history, Economic after Marx जैसी पुस्तकों के अलावा लोहिया हजारों लेख लिखे जो अपने समय के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। बाबा साहब ने अपनी बात कहने के लिए पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जिसमें मूकनायक, बहिस्कृत भारत, समता व प्रबुद्ध भारत को काफी प्रसिद्धि मिली। उन्हीं के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए लोहिया ने भी जन, उंदापदक, कृषक, कांग्रेस-सोशलिस्ट, इंकलाब जैसी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन व संपादन किया। सभी जानते हैं कि 1942 में लोहिया ने भूमिगत-जीवन के दौरान गुप्त-रेडियो का प्रयोग अपनी बात जनसामान्य तक पहुंचाने के लिए किया करते थे। वे अनजान स्थानों पर चल रेडियो स्टेशन स्थापित करते, वहां से अपनी बात कहते, क्रांतिकारियों को सूचना प्रदान करते और आगे बढ़ जाते। लोहिया की ही भांति बाबा साहब ने भी जनमत बनाने के लिए रेडियो का प्रयोग किया। नवम्बर 13, 1942 को रेडियो से प्रसारित उनका भाषण अद्भुत था, जिसने लाखों श्रोताओं को सोचने के लिए बाध्य कर दिया कि अस्पृश्यता मिटाये बिना भारत का कल्याण सम्भव नहीं है। दोनों महान संगठक थे, दोनों ने स्थापित संगठन अथवा राजनीतिक दल में काम करने की बजाए नए संगठन का गठन किया। आम्बेडकर ने बहिस्कृत समाज, मई-जून 1929 में समता समाज संघ व समता सैनिक संघ, अगस्त 1936 में आजाद मजदूर पार्टी (Independent Labour Party) शेड्यूल कास्ट फेडरेशन (जुलाई 1942), पीपुल्स एज्यूकेशनल सोसाइटी (जुलाई 1945) व अखिल भारतीय परिगणित जाति संघ गठित कर एक व्यापक सांगठनिक आधार बनाया। इसी तरह लोहिया ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी, आजाद दस्ता, किसान पंचायत, सभा, गण सेना, भूमि सेना, अन्न सेना आदि के बैनर के तले लोगों को संगठित किया।
इस प्रकार स्पष्ट है कि दोनों की कार्यप्रणाली में भी काफी समानता थी। भाषा के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो लोहिया आम्बेडकर की भाषा सम्बन्धी विचारों को और अधिक प्रामाणिकता व प्रतिबद्धता से आगे बढ़ाते हुए दिखते हैं। लोहिया की तरह आम्बेडकर हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के पैरोकार थे। आम्बेडकर के शब्दों में ‘‘भावनात्मक सुसंवाद और राष्ट्रीय एकता हिन्दी के कारण अधिक तेजी से हो सकती है। मुझे हिन्दी से अधिक प्रेम है, परन्तु हिन्दी भाषी लोग हिन्दी के सबसे बड़े शत्रु हैं और यही मेरे लिए चिन्ता की बात है। ‘‘लोहिया ने बाकायदा सामंती भाषा बनाम लोकभाषा’’ बहस चलाई और भारतीय भाषाओं को ताकतवर बनाने के लिए समय-समय कई अभियान चलाये। हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के पक्ष में खड़े होने के कारण एक ताकतवर वर्ग ने उनकी छवि अंग्रेजी विरोधी बना दी। जबकि लोहिया स्वयं में अंग्रेजी व जर्मन समेत आंग्लभाषा समूह के कई भाषाओं के गहरे जानकार थे, उन्होंने अंग्रेजी में कई पुस्तकें व लेख लिखे। अंग्रेजी में ‘मैनकाइण्ड’ निकाला। लोहिया अंग्रेजी के नहीं अंग्रेजी का सहारा लेकर किए जा रहे शोषण के खिलाफ थे। वे चाहते थे कि हिन्दी मजबूत हो और भारतीय भाषाओं तथा भारतीय भाषाओं को बोलने वाले लोगों को भी वही सम्मान मिले जो अंग्रेजी बोलने वालों को मिलता है। यही बाबा साहब की भी सोच थी।
बाबा साहब सिंचाई के पानी पर लगने वाले कर को आधा करना चाहते थे। अगस्त 07, 1937 को बाबा साहब के मार्गदर्शन में आम्बेडकर दल के इंडिपेण्डेंट लेबर पार्टी का बीस सदस्यीय शिष्टमंडल महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री को ज्ञापन सौंप कर सिंचाई कर आधा करने की मांग की। लोहिया जी ने 1954 में आबपाशी (सिंचाई-दर) बढ़ाने के विरोध में उत्तर प्रदेश में सत्याग्रह का आह्वान किया। इस आंदोलन में कई सत्याग्रहियों के साथ मात्र 15 वर्ष की अवस्था में नेताजी मुलायम सिंह ने गिरफ्तारी दी थी। आम्बेडकर के सत्याग्रह के 75 वर्ष और लोहिया के आबपाशी आंदोलन के 58 साल बाद जब उत्तर प्रदेश में लोहिया के शिष्य मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी की सरकार बनी। अखिलेश यादव, के मुख्यमंत्रित्व वाली सरकार में शिवपाल सिंह यादव सिंचाई मंत्री बने। उन्होंने पहला काम सिंचाई का पानी निःशुल्क किया। इस काम से यकीनन लोहिया व बाबा साहब की रुह को सकें मिला होगा। बाबा साहब मानते थे ‘‘विषम समाज रचना भावुकता अथवा आदर्शों से समाप्त होने वाली नहीं है। इसके लिए परिवर्तित मानसिकता और ठोस कार्यक्रमों की आवश्यकता है। लोहिया ने समाज में व्याप्त सामाजिक विषमता के विरुद्ध कई ठोस और सगुण कार्यक्रम दिए जिसमें ‘‘जाति तोड़ो अभियान’’, ‘‘दलित मंदिर प्रवेश’’ जैसी गतिविधियां उल्लेखनीय हैं। लोहिया के शिष्य व प्रख्यात समाजवादी नेता तथा भारत की प्रधानमंत्री इंदिरागांधी को चुनाव हराने वाले लोकबन्धु राजनारायण अपनी समाजवादी टोली के साथ दलितों को काशी विश्वनाथ मंदिर में प्रवेश कराने की कवायद में काफी चोटिल हुए। दिसम्बर 1957 में लोकबन्धु और दलितों के मंदिर में प्रवेश की घटना की पृष्ठभूमि लोहिया ने आम्बेडकर के महाड़ व वीरेश्वर सत्याग्रह (11 मार्च 1924) के विस्तार के रूप में बनाई थी। लोहिया ने 8 अगस्त 1956 को समाजवादियों से 1 अक्टूबर 1956 को वाराणसी में एकत्र होकर दलितों को मंदिर में प्रवेश कराने वाली समिति का साथ देने का आग्रह किया। आम्बेडकर की मृत्यु के साल भर के भीतर लोहिया व लोकबन्धु दलितों के मंदिर में प्रवेश के आंदोलन को नया आयाम देने और वहां पहुंचाने में सफल हुए जहाँ बाबा साहब पहुँचाना चाहते थे। लोहिया की तरह बाबा साहब भी अपने बाद के अनुयायियों की तरह सम्यक व सही रूप में प्रतिपादित नहीं हुए। उनके अनुयायियों ने बाबा साहब के दलितोत्थान तथा ब्राम्हणवादी शोषण के विरोध को ब्राम्हण विरोध व सत्ता प्राप्ति के साधन तक संकुचित कर दिया। बाबा साहब ब्राम्हणों के अंधविरोधी नहीं थे, वे ब्राम्हणों द्वारा पोषित जातिवादी शोषण के विरोधी थे। उन्होंने कई ब्राम्हणों का खुलकर सहयेाग लिया। महाड़ सत्याग्रह में उनके निकटस्थ सहयोगी बाबूराव जोशी थे। अप्रैल 1929 में रत्नागिरी जिला दलित परिषद का अधिवेशन आम्बेडकर की अध्यक्षता में हुआ था जिसमें उनके जन्मना-ब्राम्हण मित्र देवराज नाइक ने वैदिक मंत्रों के साथ यज्ञोपवीत किया। लंदन जाते समय बाबा साहब नाइक को ही दलित मूवमेंट की जिम्मेदारी कई दलित नेताओं की अपील के बावजूद देकर गए थे। अप्रैल 03, 1927 को दामोदर हाल में हुई बैठक में दो बड़े दलित नेताओं केशवराव जेधे और दिनकर राव जावलकर ने सत्याग्रह व जनसभा समिति में किसी ब्राम्हण को शामिल न करने की बात कही, इस पर आम्बेडकर भड़क उठे, उन्होंने स्पष्ट कहा कि उनका प्रतिकार केवल उन ब्राम्हणों से की जो वंचना के समर्थक हैं। उन्होंने ऐसे ब्राम्हणों का स्वागत और सम्मान करने की खुली पैरवी की जो जातीय विकृतियों के खिलाफ हैं। सभी जानते हैं कि उन्होंने 1948 में एक ब्राम्हण-कन्या सविता से विवाह किया। लोहिया और आम्बेडकर कार्यकर्ताओं के शिक्षण-प्रशिक्षण के पक्षधर थे। लोहिया के प्रशिक्षण शिविरों में कार्यकर्ताओं को पढ़ाई-लिखाई व संवाद करने के तौर-तरीके भी सिखाये जाते थे। आम्बेडकर का कथन ष्हमारी उन्नति तभी हो सकती है जब हम खुद को पहचानें, वाणी में वजन और बात में बल होना चाहिए, स्वयं का विचारों से सुसंस्कृत करें। इस सन्दर्भ में द्रष्टव्य है। दोनों लोकतंत्र में गहरी आस्था रखते थे। दोनों ने अधिकार और कर्तव्य को एक दूसरे से जोड़ कर देखा। दोनों ने कभी भी अपने अभिमत के आगे किसी अन्य प्रभाव को स्वीकार नहीं किया। अलोकप्रिय होने और अलग-थलग पड़ने तक का जोखिम उठाया। एक समय ऐसा आ गया कि बम्बई में बाबा साहब को प्रस्तावक तक नहीं मिले। संविधान सभा की सदस्यता के लिए उन्हें बंगाल कूच करना पड़ा और लोहिया को उन्हीं की सोशलिस्ट पार्टी से निकाल दिया गया पर दोनों ‘‘फीनिक्स’’ की भाति पुनः उठ खड़े हुए।
पाकिस्तान व भारत की एका पर भी दोनों के विचार समान थे। आम्बेडकर ने ‘‘Pakistan or partition of India’’ में लिखा है ‘‘मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है कि भले ही आज मुस्लिम लीग भारत विभाजन के लिए कमर कस चुकी है, परन्तु वह दिन जरूर आएगा जब मुसलमान भी सोचेंगे कि अखण्ड भारत सबके लिए हितकर है। भारत-पाक महासंघ के सबसे बड़े हामी लोहिया और समाजवादी दल रहे हैं। भारत-पाक विभाजन के कुछ ही दिन के भीतर लोहिया ने नई दिल्ली स्थित गोल मार्केट के पार्क में एक सभा कर दोनों देशों के एकीकरण का प्रस्ताव पारित किया, जिसकी शिकायत पाकिस्तान के कायद-ए-आजम मोहम्मद अली जिन्ना ने महात्मा गांधी से की। 1963 में लोहिया ने भारत-पाक महासंघ की अवधारणा दी। आज दोनों देशों की प्रबुद्ध जनता महसूस कर रही है कि भारत-पाक की लड़ाई भी दोनों देशों के पिछड़ेपन के कारणों में एक महत्वपूर्ण कारण है। दोनों देशों के बजट का बड़ा भाग शस्त्रों और सीमाओं की रख-रखाव पर खर्च होता है, आतंकववाद की समस्या से दोनों देशों को जूझना पड़ रहा है। अब और आज आम्बेडकर और लोहिया के मानने वालों को चाहिए कि बदले समय के अनुसार भारत-पाक महासंघ अथवा मैत्री की सार्थक पहल करें। चीन और तिब्बत के मामले में लोहिया व आम्बेडकर की एक राय थी, दोनों चीन को साम्राज्यवादी मानते थे और दोनों ने पंडित नेहरू को अलग-अलग स्थानों पर चीन से सावधान रहने की सलाह दी थी। दोनों ने अन्तर्जातीय विवाह की खुली पैरवी की। आम्बेडकर का मानना था कि रक्त सम्बन्धों के कारण ही आत्मीयता की भावना होती है। यदि अन्तर्जातीय विवाह अधिकाधिक होते जाएं तो जाति के बंधन कमजोर हो जायेंगे। दोनों जाति को मनुष्य निर्मित मानसिक वृत्ति मानते थे। दोनों के चिन्तन का आधार मानवीय कल्याण था। दोनों मनुष्य को उसके मानवीय व नागरिक अधिकार दिलाने को अपना नैतिक कर्तव्य मानते थे। दोनों शिक्षा के प्रचार-प्रसार को लेकर गंभीर थे। लोहिया ने ‘‘समान शिक्षा नीति’’ का प्रतिपादन किया और ‘‘राष्ट्रपति का बेटा हो, या भंगी की संतान, सबकी शिक्षा एक समान’’ जैसा मंत्र दिया, इसका मूल ध्येय यह था कि सभी तक शिक्षा समान गुणवत्ता और समभाव से पहुँचे। बकौल आम्बेडकर, समाज के सबसे शोषित और उपेक्षित व्यक्ति तक शिक्षा की सुविधायें पहुँचनी चाहिए। परंपरा से नकारे गए वर्ग को उच्च शिक्षा हेतु अधिक खर्च न करना पड़े ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।
बाबा साहब और लोहिया, दोनों का धार्मिक चिन्तन भी कमोबेश एक-दूसरे के करीब है। दोनों ने धर्म को न्याय, मुक्ति, समानता और भाई-चारे की चालक शक्ति के रूप में देखा है। दोनों ने धार्मिक रूढ़ियों का सदैव विरोध किया। दोनों का धर्म अस्पृश्यता व मानवीय विभेद को नकारता था। दोनों धर्म को मानव की अंतरात्मा की मुक्ति का व्यक्तिगत प्रकरण मानते थे, वे मानते थे कि धर्म को असहायों और अपाहिजों की मदद करना चाहिए। दोनों के लिए धर्म परलोक की बजाय इहलोक की अवधारणा थी। जब बाबा साहब ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया तो उनका वक्तव्य था ‘‘बुद्ध धम्म आधुनिक वैज्ञानिक निष्कर्षों पर, कसौटियों पर श्रेष्ठ सिद्ध होता है। आधुनिक युग की चुनौतियों को यह स्वीकार करता है। बुद्धिवाद, सामाजिक सत्ता, बंधुता, स्वतंत्रता, जनतंत्र, समाजवाद आदि आधुनिक मूल्यों के आलोक में इस धम्म को सिद्ध किया जा सकता है। बाबा साहब बौद्ध हुए, वे बुद्ध की शिक्षाओं से प्रेरित थे। लोहिया ने एक पुस्तक लिखकर देश के बुद्धिजीवियों से महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं से प्रेरणा लेने की बात कही थी और गस्ती गस्ती चिट्ठी जारी कर सोशलिस्टों से महात्मा बुद्ध की 2500वीं जयंती मनाने और बुद्ध पर विचार गोष्ठी आयोजित करने का निर्देश दिया था। दोनों भ्रष्टाचार को लोकतंत्र के लिए खतरनाक मानते थे। दोनों राजनीति के शीर्ष तक पहुँचे किन्तु धनार्जन व सम्पत्ति संचय नहीं किया। लोहिया तो ऐसे संत हुए जिसके पास अपनी कुटी तक नहीं थी।
अमरीका, लंदन, बर्लिन-बोन, बंबई, कलकत्ता, दिल्ली व हैदराबाद ये वे स्थान हैं जो दोनों के जीवन-मानचित्र पर उभयनिष्ठ हैं। हैदराबाद का ही उदाहरण ले लें । लोहिया ने अपनी सोशलिस्ट पार्टी का गठन 1955-56 में हैदराबाद में किया था, यहीं उनकी पत्रिकाओं का केन्द्रीय कार्यालय भी था। अपने जीवन का एक बड़ा कार्यकाल यायावर होते हुए भी उन्होंने हैदराबाद की वीथिकाओं में गुजारा था। बाबा साहब को हैदराबाद इतना पसंद था कि उन्होंने इसे देश की दूसरी राजधानी बनाने की सलाह दे दी। हैदराबाद को उन्होंने दिल्ली से भी बेहतर शहर बताया।
दोनों महात्मा गांधी का सम्मान करते थे लेकिन असहमति होने पर सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त करने से भी नहीं चूके। अगस्त 14, 1951 को काफी ज्वर के बाद भी आम्बेडकर गांधी से मिलने पहुँचे थे, यह उनका गांधी के प्रति सम्मानदृभाव प्रदर्शित करता है, लेकिन जहाँ-जहाँ उन्हें लगा कि बापू गलत हैं, खुलकर बोलने से नहीं हिचके। उस दौर में गांधी के विरुद्ध बोलने का मतलब राजनीतिक आत्महत्या करना था। सुभाष चन्द्र बोस प्रकरण इसका उदाहरण है। लोहिया ने महात्मा गांधी के लेख ‘‘सत्याग्रह अभी नहीं’’ के प्रतिकार स्वरूप लेख प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था, ‘‘सत्याग्रह तुरंत।’’
दुनिया भर में व्याप्त असमानता से दोनों दुःखी थे। अक्सर बाबा साहब के आलोचक दबी जुबान से बाबा साहब की देशभक्ति पर सवाल उठाते हैं। सच्चाई यह है कि बाबा साहब की देशभक्ति लोहिया व अन्य स्वतंत्रता सेनानियों की तरह ही असंदिग्ध व स्फटिक की भांति साफ थी। महात्मा गांधी ने आम्बेडकर को ष्दैदीप्यमान देशभक्तश् की संज्ञा उनकी देशभक्ति और राष्ट्र के प्रति उनकी अप्रतिम सेवाओं को ध्यान में रखते हुए ही कहा था। यह सही है कि बाबा साहब उस तरह से जेल नहीं गए जिस तरह आचार्य नरेन्द्र देव, लोहिया-जेपी-नेहरु-मौलाना आजाद गए थे। इसका कारण स्पष्ट करते हुए बाबा साहब ने एक जगह लिखा है कि आजादी की लड़ाई में युवाओं की एक बड़ी फौज लगी हुई है, दलित युवाओं को चाहिए कि दलितों की गुलामी से लड़े। जो काम बाबा साहब और उनके समर्थक कर रहे थे। प्रकारान्तर से वह आजादी की लड़ाई का अहम अंग था। बाबा साहब की देशभक्ति पर सवाल उठाने वालों को उन्हें आम्बेडकर को पुनः पढ़ना चाहिए।
लोहिया का विशेष अवसर का सिद्धान्त आम्बेडकर के उस उपागम का हामी है कि दलितों और वंचितों को विशेष अवसर प्रदान कर ऊँची कुर्सी पर बैठाना चाहिए, उन्हें सामान्य से अधिक अथवा विशेष अवसर उपलब्ध कराना चाहिए ताकि देश का सम्यक व समग्र विकास हो, विकास की दौड़ में बड़ी आबादी पीछे या अछूती न रह जाए। डा0 भीमराव आम्बेडकर और डा0 राममनोहर लोहिया के मध्य समानताओं की ओर यह पुस्तक केवल इशारा मात्र है, यदि सलीके से सादृश्यताओं पर लिखने बैठा गया तो हजारों पृष्ठों की मोटी ग्रन्थ भी कम पड़ेगी। लोहिया, आम्बेडकर की प्रासंगिकता आज उनके जीवनकाल से भी अधिक समीचीन प्रतीत होती है क्योंकि जिन विडम्बनाओं, विकृतियों व विषमता से दोनों लड़ते रहे वे आज भी हमारे सामाजिक व लोकजीवन में विद्यमान हैं।